ना जाने क्यों आज आँखें पथराईं हैं;...;
पल भी ना लगा 'पलकों को तब ठहरने में..;
यूँ बात ग़र कोई गुज़री याद आई है...!!!
कागज़ की वो कश्ती,'वो बूंदों से चिल्लाना ;
वो ठिठुरते हाथों से बेमक़सद ताली बजाना..,
यूँ कब बचपन से हम-तुम जो बड़े हुए ;
वो माँ-बाबूजी के किस्से कब हमसे दूर हुए;;!!
आया यूँ जब हाथों में हाथ किसी अजनबी का...;
फिर उन्हीं रिमझिम बूँदों का ताना-बाना लिए हुए;
वो थाम के आग़ोश में उस ठिठुरन को ..;
नरम अंदाज़ों से दिल को मदहोश किये...,
वो चटकती बूँदें 'तब भीगा सा इश्क़ लगे...
मुसल्सल...'यूँ ज़िंदगी के हम इतना करीब हुए...!!
उम्मीदों से परे वो चहकते मासूम पल..
..'यूँ हो गए कब, 'दिलकश उम्मीदों से भरे हुए!!!
आज सहरा में वो भीगे फ़ूल नहीं...,
है बस! होठों पे तब्बसुम हल्का सा...;
बारिश में पलकों पे वो छुपी नमी सी छाई है..;
क्या कहें..'अब इस दिल नशीं से आखिर में...;
हम जां-नशीं मोहब्बत वालों पे अक्सर;......
....अब ऐसे भी ज़माने आये हैं......
'कि क्यूँ ये बे-मौसम बरसा,,,जो क़तरा-क़तरा आँखें भर आई हैं.....!!!