Thursday, April 9, 2015

ना जाने कहाँ बिसर  गए....
..हरे सुनहरे पत्ते वो ज़िंदगी के....!
गए दिनों से कुछ अलफ़ाज़ नहीं मिल रहे,
कोई सोच,कोई ठोर,,कोई राह..
किसी भी ख्वाब,,,कोई हकीकत का ज़िक्र..
गुज़रे पन्नों की वो ज़र्ज़र किताब लिए
खुद से खुद कश्मकश ज़ारी है;
हर वक़्त मंन ना जाने क्यूँ भारी है
सोई-जागी इन  आँखों की पहचान किये
अंदर की  सुबह से मिलने की तैयारी है
उम्मीदों से परे' परास्त-खोई हुई इच्छाओं
उमंगो,रंगों से हरदम ये दिल भरा है..
….
भरा है वो बिखरे मखमली सुर्ख़ लाल रंग लिए
....
स्याही के कई इंद्रधनुषी रंग लिए 
'ज़िंदगी के हर पन्ने पे उतारने की ख़ुमारी है.....!!!!

5 comments:

  1. Mohtarmaa, kaaafi dino baad zazbaat kaagaz par nazar aaye.
    Lkikhti khoob hain aap.,,iski awez mein ye hi kahunga,
    ऐ ख़ुदा!!! आज से तेरी 'ज़न्नत पे मेरा हक़ है...;
    'तूने इस दौर के दोज़ख में बहुत जलाया है मुझे!
    keep it up.

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  2. "परास्त -खोई हुई इच्छओं " अलंकार तो नहीं जानता कौन सा प्रयोग किया है लेकिन बड़ी ही खूबसूरती से गहराई की बात लिखी है आपने.....!!!!

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    1. Hello Rajeev ji,,First of all thanks for being regular with posts n appreciate it with curiosity.
      ,जब एक शब्द के लिए हम काफी शब्दों का उदाहरण देते हैं...यहाँ पर इच्छाओं को परास्त ,,और खोई हुई कहा गया है...तो 'उपमा अलंकार ही हुआ है.
      Keep in touch further.

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  3. मधुमिताApril 10, 2015 at 2:55 PM

    प्रिय ऋतु जी
    बहुत अंतराल के बाद आप का अंतर्मन की भावनाओं को साधारण शब्दों में अभिव्यक्त करता हुआ लेखन बहुत सुन्दर बन पड़ा है!
    साधुवाद!
    जहाँ तक मेरा मानना है शब्दों का प्रयोग लेखक के मानसपटल पर चल रही घटनाओं को तारतम्यता के साथ प्रस्तुत करने का माध्यम है! उस क्षण विशेष में जो भी शब्द मन में आते हैं लिख देना ही लेखन को सहज बनाता है. अन्यथा उपमा,, अलंकार, आदि को ध्यान में रख कर लिखा गया लेख एक औपचारिकता प्रतीत होता है!

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  4. उदास फिजाँ अचानक रास आई है
    रूह पे आहट जमाने के बाद आई है

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