बीते दिनों से वो सिमटे अलफ़ाज़ नहीं मिल रहे थे,
कोई तर्क, कोई हलचल नहीं...
कोई तर्क, कोई हलचल नहीं...
रही तो बस! एक बेचैनी , एक पूर्ण विराम...!
....उस खुले दरवाज़े की तरह..;
ड्योढ़ी पे नज़रें जहाँ दायें-बाएं रखी रही कई सालों से
वो खुला दरवाज़ा आज तलक ना ढुकाया हमने,
बरसों कानों को एक आहट सुनने का इंतज़ार रहा;
...'आज एक और सामान बंधा...;
मुक़ाम पे अपने लिए कर गुज़रने को तैयार हुआ वो
‘वो जो फ़ागुन में बौछारों की तरह साथ रहा मेरे..
एक सर्द-गर्म की धूप छाँव लिए
हज़ारों यादें गुज़रे सालों की अब सिरहाने छोड़े
तमाम ख्वाइशों की मुठ्ठी को उस दहलीज़ पे लिए ..,
वो जहाँ से बरसों से हवा आर-पार हो रही थी...
आज वहीँ तैयार खड़ा है वो...
आज वहीँ तैयार खड़ा है वो...
आज मन नहीं है मेरा...;
फिर भी हाथ पकड़,..मंज़िल को रुख किया ..;
..'कहा...'मुड़ कर देखते रहना इस पार..;
‘कि जब भी इस राह से गुज़रूँगा..,
.....'हरदम ये नम आँखें,,, रुकी जुबां..
.....'हरदम ये नम आँखें,,, रुकी जुबां..
'एक कसक,,'उम्मीदों से परे एक एहसास दिलाती रहेगी..,
.............इस खुले दरवाज़े का....!!!
.............इस खुले दरवाज़े का....!!!