कुछ कही,,अनसुनी ,,,वो गुमशुदा आवाज़ें..;
एक 'जुनूँ' अब सबसे ज़ुदा चाहता हूँ....!!वो 'आलम-ए-तन्हाई ख़ुद पे जो बरसा...,
अंदाज़-ए-ज़ुदा' वो गुज़रे पलों का...;
दोबारा वो 'एहसास-ए-सुक़ून चाहता हूँ..!!
पलभर की हकीकतें, वो असफ़ज़ाई ख्वाब..,
तस्वीर के नए रंग घुलें अब मेरे जुनूँ से...;
उन्हीं ख्यालों की अब तामीर चाहता हूँ..!!
दोस्तों की दुआएं रहीं जो बेशुमार मुझपे.,
मिला जो हमसे,,,दिल से हो गए हम..;
रक़ीबों की अब इनायतें भी चाहता हूँ!!
जिसका ज़िक्र तलक़ ना हो जुबां-ज़हन में..,
ख़ुद से बयाँ हो जो, 'एहसास-ए-तरन्नुम'.;
वो अलफ़ाज़,,'वो मायने मुककरर चाहता हूँ!!!
बरसों की घुटन से जो दे रिहाइश मुझे..,
उस ख़्वाबीदा ज़िंदगी की रोशनी से परे..;
..किसी जां-नशीं से उसका पता चाहता हूँ..!!
'उम्मीदों से परे,,'पर लगाने का मन है..,
बरसों के 'काश 'को विराम देने का मन है..;
,,कि तकाज़े बग़ैर अब ज़िंदगी जीना चाहता हूँ...!!!!
दोस्तों की दुआएं रहीं जो बेशुमार मुझपे.,
मिला जो हमसे,,,दिल से हो गए हम..;
रक़ीबों की अब इनायतें भी चाहता हूँ!!
जिसका ज़िक्र तलक़ ना हो जुबां-ज़हन में..,
ख़ुद से बयाँ हो जो, 'एहसास-ए-तरन्नुम'.;
वो अलफ़ाज़,,'वो मायने मुककरर चाहता हूँ!!!
बरसों की घुटन से जो दे रिहाइश मुझे..,
उस ख़्वाबीदा ज़िंदगी की रोशनी से परे..;
..किसी जां-नशीं से उसका पता चाहता हूँ..!!
'उम्मीदों से परे,,'पर लगाने का मन है..,
बरसों के 'काश 'को विराम देने का मन है..;
,,कि तकाज़े बग़ैर अब ज़िंदगी जीना चाहता हूँ...!!!!
(ख़्वाबीदा--सोई हुई)
Jo kissi nazar se ata hui
ReplyDeleteWo hi roshni hai khiyaal mein..
Umdaa khyaal..keep it up.
बस 'जान' जाओ मुझे,यही 'पहचान' हे मेरी...
ReplyDeleteहम 'दिल' में आते हे, 'समझ' में नहीं..!!.. For my MAYA.
Nice sher,,,,suna h dil ko dil se raah hoti hai,,,aur, Jo samjh Mein aa jaaye,,,Wo pahchaan hi kya,,,@Gauri,,,keep in touch wid posts
Deleteसुन्दर रचना.... आप उर्दू की भी अच्छी ज्ञाता हैं। शुभकामनाएं....
ReplyDeleteअजेन्द्र
स्वर्णिम अक्षरों में भावुक अभिव्यक्ति के लिए करतल ध्वनि सहित साधुवाद!!!!
ReplyDeleteप्रिय ऋतू जी, आपके लेख को पढने और आपके लेख में समाहित चित्र को देख कर ऐसा महसूस होता है की चित्र के ऊपर सारा लेख केन्द्रित है और चित्र की भावनाओं को आप अक्षरों में उतार देती हैं.
पूरा लेख = चित्र.
शुक्रिया मधुमिता जी,,भावनाओं की ग़रिमा को समझने के लिए,,,और निरंतर जुड़ने लिए।।
Deleteसारा दिन गुज़र जाता है खुद को समेटने में... !
ReplyDeleteफिर रात को हवा चलती है उसकी यादों की और हम फिर बिखर जाते है... - अज्ञात
हम तो पहले से ही बिखरे हुए थे,,किसी ने समेटा भी तो जलाने के लिए,,,! शुक्रिया अज्ञात,,निरंतर जुड़ने के लिए 😊
Delete