Wednesday, November 12, 2014

 वो जो एक बेजान...,
 कुछ कुमलया,,,मुरझाया सा दरख़्त..;
 जिसमें बीती हवाओं की रुख़ से..,
 कच्ची-हरी  सी  शाख़ अब भी बाकी है..!
ओस की बूँद लिए ,,,'फिसलकर;
पत्ता गिरा उसकी हथेली पे,पूछा आज  उससे
कि, मिज़ाज़ नरम क्यों नहीं होता???
कैसेक्या समझाएं..कि हवाओं ने जगह ना दी 
....या उन शाखों ने सहारा...,
जो  पत्ते  का मिज़ाज़ नरम होता???
इच्छाएं जो खत्म हुईं,,, उम्मीदें जो तबाह हुईं.....
गए दिनों कि ख़लिश लिए..'ख्वाब जो ख़ाक हुए 
......मिज़ाज़ कैसे तब  नरम होता???
  ग़र,  'वो हमनवाज़ हो तो परख ले...'परखे,,,कि  हम तो उधार बैठे हैं  ..
उम्मीदों से परे'.....उन तम्मनाओं...एक शानसाई,,,एक यकीं के साथ...;
उन तमाम लकीरों के इज़ाफ़े के साथ....;
...तफ़्सीर करेंगे ,,,तब अपना हाल--दिल लिए;
.. कि मिज़ाज़ ये शुकराना क्यूँ ना होता??



2 comments:

  1. ..Aah aur Wahh,,ka ferk mehsoos hai is lekh mein,,Khoobsurat andaaz-e-bayaan.
    keep it up.

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  2. मधुमिता शर्माNovember 12, 2014 at 11:52 AM

    प्रिय ऋतु जी,
    अतिउत्तम......
    "कुछ कुमलया,,,मुरझाया सा दरख़्त..;
    जिसमें बीती हवाओं की रुख़ से..,
    कच्ची-हरी सी शाख़ अब भी बाकी है..!"

    आज के लेख को पढ़ कर अनायास ही एक पुराना गीत याद आ रहा है ...

    "आशाओं के मौसम में .......
    उमंगों की बहारें हैं ......."

    प्रेम से लबरेज़ रचना के लिए साधुवाद.......

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