Thursday, February 20, 2014

बेख़बर दिल कब किस ख़वाब को सच मान ले,,,'नहीं पता..,
बेख़बर जो ठहरा ,,,शायद अपने लिए बेपरवाह भी..;
आज कुछ यूँ ही अपने धुन में ,,,,उन असफ़ज़ाई ख्वाब में.,
कब अचानक लगी ठोकर,,तब ज़ुबान पे और कोई नहीं..;
बस!!!! अलफ़ाज़ वो उम्मीदों भरा 'माँनिकला....
जैसे कि,..' एक दुनिया है इस लफ्ज़ में....!!
तब एहसास हुआ,,और कहा दिल ने दिल से ...;
कि,,'तुम ना सम्भलोगे ठोकर खाकर भी...,
क्यूँ तरसते,,तड़पते हो गैर मौज़ूदगी भरे उन अल्फ़ाज़ों को;
उन ना-उम्मीदों को,...उन मायनों को भी...;
जो सिर्फ कहने भर से भी नहीं आज इर्द-गिर्द तुम्हारे..;
हो ,,,तो सिर्फ 'तुम,,,उन उम्मीदों और आकंक्षाओं से परे;
सिर्फ तुम ,,,,तुम्हारा अपना वज़ूद,,अपना खुद पे भरोसा.;
तुम तो ख़ुद गुज़रे वक़्त की नमी से कब के पत्थर हो चुके हो!
 ...
और,,,वो  भी 'माँके ही लफ्ज़ थे  कि…;
'वक़्त ही सिर्फ वो ज़ालिम है,,,,जो हर मोड़ पे टकरेगा...;
टूटे हो पर बिखरे भी नहीं हो इतना ...कि..;
  …..
इन राह बिखरे पत्थरों से तुझे अब कभी ख़राश भी आये …..!!!!

6 comments:

  1. तू छोड़ दे कोशिशें इन्सानों को पहचानने की..
    यहाँ ज़रुरतों के हिसाब से सब नकाब बदलते हैं..

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    1. Waahh,,,bahut thek kaha tumne,,hakikat se parey!!!
      Chura ke rang sapno ke kisi ki aankh mein bharna....
      Ye na-mumkin si koshish he muhabbat soch ke karna !!
      do keep in touch, Gauri....further!!

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  2. मधुमिता शर्माFebruary 21, 2014 at 12:17 PM

    ऋतू जी,
    आज के लेख को पढ़ कर अनायास ही कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

    बचपन के दुःख भी कितने अच्छे थे ,
    तब तो सिर्फ खिलोने टूटते थे,
    वो ख़ुशियाँ भी न जाने कैसी ख़ुशियाँ थीं,
    तितली को पकड़ के उछला करते थे
    पाँव मार के खुद बारिश के पाने में,
    अपने आप को भिगोया करते थे,
    अब तो एक आंसू भी रुसवा कर जाता है,
    बचपन में दिल खोल के रोया करते थे...

    आपके अंदाज़े बयान को अनेकानेक साधुवाद.

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    1. Shukriya, Madhumitaji,,..for appriciation the feelings in between the lines,...n thnks for regular with posts,....Regds!

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  3. Ritu ki Nazar se Khud Ritu"Maya"
    --Meri najar se:
    आज फिर आईने से
    कुछ वादे किये हैं,
    आज फिर
    ख़ुद को बहलाने के,
    नाकाम इरादे किये हैं,
    धुंधले से आईने में,
    धुंधली सी दिखती हूँ,
    अपनी ही पहचान पर,
    कुछ सवाल करती हूँ,
    आईने की फ़ितरत से
    जानकर अनजान सी,
    अपने ही अस्तित्व पर
    हर दिन बवाल करती हूँ,
    ये कैसे किस्मत ने
    शोर में भी सन्नाटे सिये हैं,
    आज फिर
    ख़ुद को बहलाने के,
    नाकाम इरादे किये हैं...

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    1. ...Bahut khoobsurat,...jaise ki mujhko koi mujhse behtar jaanta hai,,,aur wo ek achhey dost ke alawaa koi ni ho sakta...thek kaha tumney....Bahir ki awazein sunna chahti hoon...Lekin....shayd...Mere andar shor bahut hai...
      Khamoshi mein shor tha mene suna kuch bhi nahin,..
      Apni awaaz bhi kho chuki hai shyad...tanhai main??

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