Saturday, September 27, 2014


चाहतें जो मुक़्क़मल हैं अभी भी मेरी ज़िंदगी में
मय्यसर बेज़ान ना हो जाये अब इस रहगुज़र में   

सदियों की ठहरी ख़ामोशी के उन ठहरे हुए पलों में 
ख़ामोशी से फिर अब किसी को पुकारने का मन है
...कब यूँ गुज़र कर बिखर गयीं;
...मेरी उम्र भर की वो रंजिशें 
तबियत जो हसास, बेज़ार बीती सहर में
ख़फ़ा उस ख़ुशगुमानी को मेहरबां करने का मन है
...फिर बेरुख़ी तन्हाई रखने लगी है...
हुज़ूम-ए-शौक़ तमाम उन तर्क-ए-गुफ्तगू का;
कि,,,,वो उस एक एहसास-ए-सुकून पल की तलाश;;;
कहते है जिसको ज़िंदगी.'आगोश में लेने का मन है
दहलीज़ पे लगे ...खुश्बू की फिर है कोई ख़ुमारी ;
,,,मोहब्बत जो कभी उम्र पे रही हर पल भारी;
...फिर उसी की वो बातें..वो ज़ज़्बात....
अल्फ़ाज़ों के वो मायने दोहराने का मन है!
मन है कि 'ख़ुदा तामील करे अब इस मन की...
कि..'उम्मीदों से परे...पले वो अधूरे ख्वाब..;
...सादा सी कहानी के वो अधूरे  अल्फ़ाज़ ;;
...बे-लूस लकीरों के वो सितम..
...तमाम गुज़री ताबीर-ए-कशिश को 'बेहिसाब करने का मन है...!!!

Tuesday, September 16, 2014


गुज़ारिश’……………….

..इत्तेफ़ाक़ है या हकीकत,,,इस ज़िंदगी में;
लोग अक्सर अनजाने में मुख़ातिब 
होते क्यूँ है???
...टकराना सही...'किस्मत के हाथों;
वो एहसास-ए-मोहब्बत-ए-शौक़ जताते क्यूँ है?
वो एहसास भी ज़ायज़..'उन बेपाक निगाहों के ज़रिये;
..कि दिमाग़-ए-ज़हन के करीब उतर कर...
...रुक -रुक के यूँ संभलते क्यूँ है??....
गोया, यूँ जो ख़ौफ़ रखते हैं रूस्वायिओं का..;
 ...तो फिर घर से 
बाहर निकलते ही क्यूँ है ???
जाने क्यों एहसास वो एहसानो का..;
पल...दूजे पल,,,हर पल जताते क्यूँ है?
.आते -जाते..
उस रंग-बेरंग ..;
उस बेपाक मौसम की तरह बदलते क्यूँ है??
तन्हाई के आलम में बेमौसम बारिश में भीगें कभी पलकें..;
क़तरा-क़तरा वो पानी किसी को ख़ुशी लगती क्यूँ है??
.'गुज़ारिश है, मानिंद सी रहे अब ज़िंदगी मेरी...;
कि उम्मीदों से परे’.. वक़्त की तरह खेल कर ..;

….यूँ अब ताश के पत्तों की तरह तकसीम ना करे कोई ..,
कि रही ना अब कोई ताक़त उन बेखलूस ख्वाबों की भी..;
फिर किस बिनाह पे कहते रहे .'बनती-बिगड़ती ये आरज़ू क्यूँ है???  



Monday, September 8, 2014


सरगोशी चुपचाप से जो पली-बढ़ी है मुझ में..
वो रंजिशें,'वहशत में गुज़री जो ज़िंदगी.;
आज यूँ मुसलसल अरमान उठे जो ज़हन में.,
बरसों बाद दिल कभी मिले किसी रहगुज़र से;
कि,,ज़िंदगी ना भरे धूल कोई इस रहगुज़र में
वो शौक--मंज़र जो सोचते रहे हम
कभी छम से कोई आए यूँ मेरी ज़िंदगी में
कि नज़र तक को मेरी तब इत्तेला तक ना हो
दिल चाहे चाहतों से बढ़कर हो जाये ज़िंदगी में
जो लम्हे आज़माये बगैर गुज़ारे उस सहर में;
...
ना रूठे तब वो किसी भी आज़ाब से..
..
ना थामे किसी सुकून--ख्वाब से;
..
कि हरसूँ साथ वो ,,उस हर सुकून--पल का;
,,
कि जो उम्र एक बिता चुके हैं किश्तों में;
कि अब ना हो शिकस्त-ए-दिल बची ज़िंदगी में;
तफ़सीर ये वक़्त की ना बीते पैबंदकारी में,,,,;
उम्मीदों से परे अब 'वो ख़ुदा ही ये अता करे,
कि ख्वाबों की ताबीर में उलझा ली जो ज़िंदगी ...
इस ख्वाब--मंज़र को भूलने की दुआ 'वो ना कभी क़ुबूल करे !!!!

Monday, September 1, 2014

कभी ख़ुद से सुनता है,'तो कभी जूनून-ए-दिल की;
इसके हिस्से में ना जाने कितनी ख़लिश बाकी है?
अक्सर तारों के तले ,,,तन्हाई में सोचता हूँ मैं..;
संगदिल-ज़िंदगी का कितना नज़दीक आना बाकी है?
दूर रहकर भी कम्भख्त ये दे चुकी जितनी सज़ा;
आशना जब लगा करीब,'फिर क़ज़ा कितनी बाकी है?
तन्हाई ही क्या रह गयी है मुसलसल इस ज़िंदगी में;
या,,,फिर और शानसाई इसकी बाकी है ??
वो कभी जो दावे हुआ करते थे शहर के अपनों के
अलफ़ाज़ मेरी किताब के क्या और पढ़ना बाकी है ??
वरक-वरक वो मेरे सामने, 'रू-ब-रू मैं उसके करीब;
उसी का रह गया है सिर्फ सबब मुझे,,
....कि ना अब कोई और ख्वाइश बाकी है !!!
रह गयी ना उम्मीद-ए आरज़ू भी ;
कि उम्मीदों के परे' अब कोई मुझे लक़ाब ना दे..,
‘ख़ुदा का ही रह गया ऐतबार ,,,यही आख़िरी गुमान बाकी है....!!!!!


शानसाई--खोज   
* लक़ाब --शीर्षक