Thursday, February 26, 2015

ये दर्द कैफियत के किस्सों में उलझे
कभी आने, बरसने को आतुर-सुलझे
ये नमी,,,जो पलकों में बसी बरसों..
कभी भरे,,कभी रुके ये आंसू..
एक मुस्कराहट के अधीन से..
एक पलक झपकती हंसी को रोकते..,
बेसबब यूँ ना कभी ये छलका करते,
तन्हाई में कब हमसाया बने  ...
यूँ जब सुनाते हैं अपना गुज़रा रूदाद-ए-सफर;
छलकने को बेपरवाह रहते हैं ये आंसू !!!
उम्मीदों से परे',,,,मज़बूर करती है...
दर्द सख्ता बन चुकी है ये ज़िंदगी....
हरदम एक खलिश,,एक रंजिश ,
जाने किस मोहब्बत,,,कौन से अपनेपन की मुख़्तसर;,
उम्मीदों से भरे.. हरदम ये आंसू...
कोई हो जो ख़ुशी को बिठाए लबों पे
कि,,,गम ही सिर्फ अश्कों में बिखर जाए...
जो मोहब्बत बची भी है ज़िंदगी  से...
गुज़ारी  है जैसे ,,,.ना फिर 
वैसी गुज़र जाए...;
वो जिसको कहते हैं इश्क़-ए-जुनून,,
इस नमी पे यूँ गुज़र जाए....
सूखे पत्तों की तरह जो बिखरे पड़े हैं  ...
....कब हम संवर जाए और ये अश्क सिमट जाए......!!!