Thursday, November 27, 2014

वो पहलू में आकर क्या बैठे...;
सुकून-ए-जहाँ कोई मिल गया ..!
जन्नत-ए-मज़िल कहते हैं जिसको..;
वो जैसे कोई खोया हुआ रूतबा मिल गया!
कोई खोई सी आरज़ू तब लगे पहलू में
जब हाथ में 
हाथ लिया उसने  मेरा...
एहसास ना हुआ तब उस ढलती शाम का;
वो कब अनकहा इंकार...'इकरार बन गया!
दिल जो तरसा कभी मरासिम की ख़ातिर
ताल्लुक़ के अब उसी बहाने ढूँढ़ता गया..,
वो अधूरे,,,टूटते ख़्वाबों की अदावतें..
बेख़बर वो कब मुक़्क़मल करता गया !!
बरसों बाद मौज़ूदगी..'उस सुकून की इतनी..,
मंदिरों की खामोशी का आगाज़ हो जैसे..;
उम्मीदों से परे...'उम्मीदों की नज़रों से..,
बस!! लेके वो अपनी मर्ज़ी से साथ चले..!!
हक़ीक़त है या ख़्वाब...'लगे हर पल मुसलसल..,
यूँ आज जो आके बैठे वो पहलू में...
....सबर रहा बस...'इतना ही;
कि कब धीरे से ये बात कहे.....,
'यूँ तन्हा सफ़र अब गुज़रा बहुत...,
कहो ? कब हम तुम्हारे साथ चलें ........!!



Wednesday, November 12, 2014

 वो जो एक बेजान...,
 कुछ कुमलया,,,मुरझाया सा दरख़्त..;
 जिसमें बीती हवाओं की रुख़ से..,
 कच्ची-हरी  सी  शाख़ अब भी बाकी है..!
ओस की बूँद लिए ,,,'फिसलकर;
पत्ता गिरा उसकी हथेली पे,पूछा आज  उससे
कि, मिज़ाज़ नरम क्यों नहीं होता???
कैसेक्या समझाएं..कि हवाओं ने जगह ना दी 
....या उन शाखों ने सहारा...,
जो  पत्ते  का मिज़ाज़ नरम होता???
इच्छाएं जो खत्म हुईं,,, उम्मीदें जो तबाह हुईं.....
गए दिनों कि ख़लिश लिए..'ख्वाब जो ख़ाक हुए 
......मिज़ाज़ कैसे तब  नरम होता???
  ग़र,  'वो हमनवाज़ हो तो परख ले...'परखे,,,कि  हम तो उधार बैठे हैं  ..
उम्मीदों से परे'.....उन तम्मनाओं...एक शानसाई,,,एक यकीं के साथ...;
उन तमाम लकीरों के इज़ाफ़े के साथ....;
...तफ़्सीर करेंगे ,,,तब अपना हाल--दिल लिए;
.. कि मिज़ाज़ ये शुकराना क्यूँ ना होता??